*Our resposibility*

in urdu •  3 years ago 

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लोगों को इस्लाम की तरफ बुलाना हम पर फ़र्ज़ है और हमारी ज़िम्मेदारी है ।
इस अध्याय में हम मुख्तलिफ पहलुओं से जानेंगे कि ये अहम ज़िम्मेदारी क्यों है ?

सब नबियों का मिशन
लोगों को तौहीद की दावत देना हर नबी का मिशन रहा है । असल में लफ्ज़ 'नबी' और 'रसूल' का मतलब ही खबर पहुँचाने वाला होता है । चाहे वो नूह हो या इब्राहीम, मूसा हो या ईसा, हूद हो या सालेह, शुऐब हो या लूत अलैहिमुस्सलाम या खुद नबी मुहम्मद (स०) इन सभी ने एक ही पैग़ाम की तब्लीग़ की है- ‘सिर्फ अल्लाह की इबादत करो और हमारी इताअत करो ।’
क़ुरआन में कई जगह अल्लाह ने नबी मुहम्मद (स०) को साफ तौर से लोगों को तौहीद की दावत देने के लिए हुक्म दिया है-
“ऐ रसूल) तुम (लोगों को) अपने परवरदिगार की राह पर हिक़मत और अच्छी अच्छी नसीहत के ज़रिए से बुलाओ...”
(सूरह नहल 16:125)
“ऐ रसूल ये (क़ुरआन वह) किताब है जिसको हमने तुम्हारे पास इसलिए नाज़िल किया है कि तुम लोगों को परवरदिगार के हुक्म से (कुफ्र की) तारीक़ी से (ईमान की) रौशनी में निकाल लाओ ग़रज़ उसकी राह पर लाओ जो सब पर ग़ालिब और सज़ावार हम्द है ।”
(सूरह इब्राहीम 14:1)

उम्मत का मिशन
चूंकि अब हमारे बीच में क़यामत तक कोई नबी नहीं आएगा इसलिए लोगों को तौहीद की तरफ बुलाने की ज़िम्मेदारी हमारे कांधो पर है । ये एक बेहद ज़रूरी और नबियों वाला काम है जिसे करने की ज़िम्मेदारी हम सबकी है ।
अल्लाह की तरफ से नबी मुहम्मद (स०) को हुक्म दिया गया-
“(ऐ रसूल) उन से कह दो कि मेरा तरीक़ा तो ये है कि मैं (लोगों) को ख़ुदा की तरफ बुलाता हूँ, मैं और मेरा पैरवी करने वाला...”
(सूरह यूसुफ 12:108)

लोगों को अल्लाह के दीन की तरफ बुलाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ मुहम्मद (स०) को ही नहीं दी गई बल्कि उनके रास्ते पर चलने वाले उनके उम्मतियों को भी दी गई है । अब अगर कोई ये दावा करता है कि मैं नबी मुहम्मद (स०) का उम्मती हूँ तो ऑटोमैटिक इस ज़िम्मेदारी का बोझ उसके कांधो पर भी आता है ।
क़ुरआन में अल्लाह ने उन मुसलमानों की तारीफ की है जो इस नबियों वाले काम को करता है-
“और इस से बेहतर किसकी बात हो सकती है जो (लोगों को) ख़ुदा की तरफ बुलाए और अच्छे अच्छे काम करे और कहे कि मैं भी यक़ीनन (ख़ुदा के) फरमाबरदार बन्दों में हूँ ।”
(सूरह फुसीलत 41:33)
क़ुरआन में अल्लाह तमाम मुस्लिमों को हुक्म देता है कि-
“और तुममें एक गिरोह ऐसे (लोगों का भी) तो होना चाहिये जो (लोगों को) नेकी की तरफ़ बुलाए अच्छे काम का हुक्म दे और बुरे कामों से रोके और ऐसे ही लोग (आख़ेरत में) कामयाब होने वाले है ।”
(सूरह अल इमरान 3:104)

इस आयत से ये बात समझ आती है कि एक मुसलमान सिर्फ और सिर्फ तभी कामयाब हो सकता है जब वो इस ज़िम्मेदारी को पूरा करेगा ।
हज्ज के मौक़े पर अराफात के मैदान में नबी मुहम्मद (स०) ने वहां मौजूद लोगों से कहा कि मेरा पैग़ाम उन लोगों तक पहुंचा दो जो यहाँ मौजूद नहीं है साथ ही यह भी कहा कि “बेशक ऐसा होता है कि जिसको पैग़ाम पहुँचाया जा रहा है वो पैग़ाम पहुँचाने वाले से ज़्यादा उसे समझता और याद रखता है ।”
(सहीह बुखारी 1741)
क़ुरआन और हदीस से ये कुछ दलीलें है जो हमें साफ़ तौर से बताती है कि लोगों को इस्लाम की तरफ बुलाना सिर्फ नबियों का ही काम नहीं है, बल्कि ये हर उस मुसलमान की ज़िम्मेदारी है जो ये दावा करता है कि मैं नबी मुहम्मद (स०) का पैरोकार हूँ । इस अज़ीम काम में सहाबा की और उनके बाद दीन का परचम लेकर चलने वाले बुजुर्गाने दीन की ज़िंदगी हमारे लिए बेहतरीन नमूना है ।

हमारे वजूद का मक़सद
सूरह अल इमरान की 104 नम्बर की आयत में मुसलमानों को लोगों को अल्लाह की तरफ बुलाने की ज़िम्मेदारी देने के बाद इसी सूरह की 110 नम्बर की आयत में अल्लाह ये खबर भी दे रहा है कि हमारी ज़िंदगी का मक़सद क्या है और किस वजह से हमें पैदा किया गया है “तुम बेहतरीन उम्मत हो (लोगों की) हिदायत के वास्ते पैदा किए गए हो तुम (लोगों को) अच्छे काम का हुक्म करते हो और बुरे कामों से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो...।”
हम बेहतरीन उम्मत तभी हो सकते है जब अल्लाह पर ईमान रखते हुए अच्छे कामों का हुक्म करे और बुराई को रोके । अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो हम बेहतरीन उम्मत भी नहीं हैं । इस तरह हमें पैदा करने का मक़सद ही ज़ाया हो जाएगा । और अगर हम उस मक़सद के बिना जिसके तहत हमें पैदा किया गया है उसे पूरा किए बिना अल्लाह के पास लौटेंगे तो क़यामत के दिन इसके जवाबदेह होंगे ।

सखावत की निशानी
अगर हमारे पास कोई अच्छी चीज़ है, जैसे कोई खबर या जानकारी तो कोई रहमदिल और सखी इंसान उसे दुसरे लोगों से भी शेयर करेगा ताकि उनको भी उसका फायदा मिल सके लेकिन सिर्फ बहुत ज़्यादा कंजूस लोग ही होंगे जो ऐसी खबर को सिर्फ अपने पास ही रखेंगे । मिसाल के तौर पर हमें ये खबर मिले कि एक अच्छी कंपनी में जॉब के लिए वेकेंसी निकली है । इस खबर की तहक़ीक़ कर लेने के बाद एक सखी इंसान उसे अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से ज़रूर शेयर करेगा या कुछ ग्रुप्स में पोस्ट करेगा ।
ये खबर तब और ज़रूरी हो जाती है जब ये किसी इंसान की ज़िंदगी और मौत से जुड़ी हो । और इससे भी ज़्यादा तब ज़रूरी हो जाती है जब ये खबर किसी की आख़िरत का फैसला कर सकती है । हमारे पास क़ुरआन और नबी की सुन्नत है । हमारे पास जन्नत और निजात की, गुनाहों की माफ़ी और लामहदूद कामयाबी की चाबी है । हमारे पास इस्लाम है, क्या इसे दूसरों तक नहीं पहुँचाना चाहिए ? या हमें पिछली किताब वालों की तरह बन कर इस खबर को छिपाए रखना चाहिए ?
“उससे बढ़कर कौन ज़ालिम होगा जिसके पास अल्लाह की तरफ से गवाही मौजूद हो और फिर वो छिपाए और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे बेखबर नहीं ।”
(सूरह बक़र 2:140)
अल्लाह हमें हुक्म देता है कि हक़ बात को छिपाए नहीं बल्कि दूसरों को बताए-
“और हक़ को बातिल के साथ न मिलाओ और हक़ बात को न छिपाओ...।
(सूरह बक़र 2:42) इसी आयत को सूरह अल इमरान की 71 आयत में भी दोहराया गया है ।

इंसानियत की निशानी
मान लीजिए कि आप सड़क पर सफर कर रहें हैं और आप एक ऐसे इंसान को देखते है जो बाइक चला रहा है और उसकी बाइक का साइड स्टैंड नीचे है । आप क्या करेंगे ? आपके दिमाग में फौरन हरकत होगी और आप उस इंसान को साइड स्टैंड ऊपर करने के लिए कहेंगे । अक्सर यही होता है न रोड़ पर ? सवाल पैदा होता है कि हम ऐसा क्यों करते है ? क्यूंकि हम डरते है कि कहीं अगले मोड़ पर वो गिर न जाए । ऐसा क्या बुरा हो सकता है अगर वो ड्राइव करते हुए गिर जाये ? उसे चोट लग सकती है । उसकी कुछ हड्डियाँ टूट सकती है । वो मर सकता है । क्या उसके मरने से ज़्यादा भी उसके साथ कुछ बुरा हो सकता है ? नहीं ।
हर गुज़रते दिन के साथ हम देखते है कि सेकड़ों लोग बूतपरस्ती करते है और कुफ़्र की, शिर्क की, और एक बुतपरस्त की मौत मर रहें हैं । हम जानते है कि ये लोग आखिर में जहन्नम में जायेंगे और हमेशा के लिए उसमें सड़ेंगे । लेकिन कभी हमारा ज़मीर उनके लिए नहीं जागता, हमारे दिल में कभी ये बात नहीं आती कि उन्हें बुतपरस्ती से रोक कर तौहीद की तरफ लाया जाए।
ऐसा लगता है कि हम किसी इंसान की इस ज़िंदगी की ज़्यादा परवाह करते है बनिस्बत उसकी आख़िरत की परवाह किए बिना । अगर वो बाइक सवार उस दिन बच भी जाता है तो किसी न किसी दिन उसको मौत ज़रूर आएगी, हम सबको भी आएगी लेकिन अगर कोई शख्स शिर्क से नहीं बचता और उसी हालत में मर जाता है, तो वो जहन्नम की आग में हमेशा के लिए जलेगा । क्या हमारी इंसानियत में उसकी आगे की ज़िंदगी को लेकर उसकी इस ज़िंदगी से ज़्यादा हलचल नहीं होनी चाहिए ?
हज़रत जाबिर रज़ियल्लाहू अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह (स०) ने फरमाया- “मेरी और तुम्हारी मिसाल उस शख्स जैसी है जिस ने आग जलाई तो मकड़े और पतंगे उसमें गिरने लगे। वो शख्स है कि उनको इससे रोक रहा है, उसी तरह मैं तुम्हारी कमरों पर पकड़ कर तुम्हें आग से हटा रहा हूँ और तुम हो कि मेरे हाथों से निकले जा रहें हो ।”
(सहीह मुस्लिम 2285)
क्या इस मिसाल से हमें अपने नबी का रास्ता इख़्तियार नहीं करना चाहिए ?

हम पर एक क़र्ज़ है
दोस्तों, हम आज इसलिए मुसलमान है क्योंकि किसी एक या अनेक मुसलमानों ने हमें इस्लाम के बारे में बताया है या हमारे पुरखों को बुतपरस्ती से निकलने में मदद की है और उन्होंने इस्लाम कुबूल किया था । ये उनका हम पर क़र्ज़ है । ये क़र्ज़ पैसे से उतरने वाला नहीं है । ये क़र्ज़ सिर्फ उन महान लोगों के लिए दुआ करने से और उन बातों को दुसरे लोगों को पहुँचाने से ही उतर सकता है जो उन्होंने हम तक पहुंचाई है । दुसरे लफ़्ज़ों में अब हमें भी दुसरे लोगों को शिर्क और बुतपरस्ती से निकलने में मदद करनी होगी और उन्हें इस्लाम में लाना होगा । ये एक इकलौता रास्ता है जिसके ज़रिए हम इस क़र्ज़ से आ

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