a poem

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मन की आशा
आफिस की फाइलों में गुम
पांचवीं मंज़िल से देखा
शहर बड़ा ही सुन्दर था
पर अब मन इतना चाहे
दूर पहाड़ों में जाऊं
वहां की ठंडी हुवा में खो कर
एक सुन्दर वादी देखूं
लम्बी सैर पे चल निकलूं
सुबह की धुंद बुलाती है
शाम की काफी लुभाती है
शान है ऊंचे पेड़ों की
पत्तों पर जो कदम रखूँ
कोई याद आजाता है
मन में आशा जागती है
घडी अचानक जो देखि
समय हुआ था मीटिंग का
आशा को मन में रख कर
ज़रा सी तैयारी करली
दुन्या आखिर दुन्या है
आशा आखिर आशा है

https://www.pexels.com/photo/silhouette-of-mountains-during-sunset-12762122/

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Very nice. Relatable.