a poem

in blogs •  10 months ago 

मन की आशा
आफिस की फाइलों में गुम
पांचवीं मंज़िल से देखा
शहर बड़ा ही सुन्दर था
पर अब मन इतना चाहे
दूर पहाड़ों में जाऊं
वहां की ठंडी हुवा में खो कर
एक सुन्दर वादी देखूं
लम्बी सैर पे चल निकलूं
सुबह की धुंद बुलाती है
शाम की काफी लुभाती है
शान है ऊंचे पेड़ों की
पत्तों पर जो कदम रखूँ
कोई याद आजाता है
मन में आशा जागती है
घडी अचानक जो देखि
समय हुआ था मीटिंग का
आशा को मन में रख कर
ज़रा सी तैयारी करली
दुन्या आखिर दुन्या है
आशा आखिर आशा है

https://www.pexels.com/photo/silhouette-of-mountains-during-sunset-12762122/

Authors get paid when people like you upvote their post.
If you enjoyed what you read here, create your account today and start earning FREE BLURT!
Sort Order:  
  ·  10 months ago  ·  

Very nice. Relatable.